बिहार-बाढ़-सुखाड़-अकाल की तलाश मुझे समस्तीपुर जिले के लदौरा गांव ले गई, जहां 1962 और 1975 में बूढ़ी गंडक नदी का तटबंध टूटा था। यह कहानी साधू शरण सिंह ग्राम/पोस्ट लदौरा जिला समस्तीपुर के शब्दों में,
यह बाँध बना था, 1956-57 के आसपास और यहाँ 1975 में टूटा। इसके पहले लदौरा में 1962 में टूट चुका था. हमारे यहाँ एक शिक्षक थे पांडेजी जिन्होनें सबसे पहले बाँध से होकर पानी बहते हुए देखा था. सुबह का समय था. उन्होंने शोर मचाया तो हम सभी लोग बाँध की तरफ भागे। उस समय तक बाँध टूटा नहीं था पर उससे होकर पानी बह रहा था. सबको लगा कि अगर पानी का मुहाना बंद कर दिया जाए तो बाँध बच जाएगा पर इसके लिए नदी के अन्दर वाले हिस्से में जाकर उसका मुंह बंद करना पड़ता. यहाँ एक मल्लाह था जिसका नाम मैं भूल रहा हूँ उसने कहा कि वह बोरे में मिटटी भर कर ले जाएगा और छेद का मुंह बंद कर देगा। वैसा ही इंतजाम किया गया और वह पूरी तैयारी के साथ छेद का मुंह बंद करने के लिए उतरा। मगर पानी कि रफ़्तार इतनी तेज़ हो गयी थी कि वह पानी के साथ बहता हुआ अन्दर ही अन्दर इस किनारे आ लगा। पानी ने उसे इस ओर झोंक दिया था। गनीमत बस इतनी थी कि वह मरा नहीं और न ही उसे कोई चोट आई। उसके बाद तो कोलाहल मच गया और बाँध थोड़ी देर में टूट गया।
नदी का पानी कई गाँवों में भर गया। मैं इस घटना के कई दिनों के बाद नाव ले कर अपने कुटुम्बियों से मिलने के लिए गया था। बाँध टूटने से जो गड्ढा बना वह अभी भी है और एक नहर की शक्ल में मौजूद है। उसके बाद बाँध बांधने की कवायद शुरू हुई. पहले तो लोहे की जाली गाड़ कर उसके सामने बालू के बोरे पैक कर रखे गए पर यह कोशिश कई दिन चली मगर उससे कोई फायदा नहीं हुआ। नदी जब पीछे हट गई तभी असली काम शुरू हुआ, तब तक तो पानी बाहर बहता ही रहा। इस घटना में गाँव का कोई आदमी तो नहीं मरा मगर बहुत से जानवर और घरेलू सामानों को हम लोग बचा नहीं पाए। इस पूरे इलाके में पानी भरा हुआ था जिसका असर यहाँ से 12 किलोमीटर दूर लहेरियासराय के पास जठमलपुर तक पड़ा था। जठमलपुर में जब 1987 में बागमती का तटबंध टूटा था तब उसका असर यहाँ तक पडा था। पानी किसी का कहना थोड़े ही मानता है। यहाँ बाँध लोमड़ी की माँद की वजह से टूटा था और लदौरा में यही काम चूहों ने किया था। बाँध के टूटने में इन दोनों की अहम भूमिका रहती है।
मुझे याद है कि जिस दिन बाँध टूटा था उस दिन पहली अगस्त, 1975 की तारीख थी. मैं तब किशनपुर स्कूल में शिक्षक था और ड्यूटी नहीं जा पाया था। किसी ने अफसर से शिकायत कर दी थी और मेरा एक दिन का वेतन काट लिया गया था।
2007 में हम लोगों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। यहाँ बांध तो सुरक्षित था मगर पानी 14 अगस्त को पहुँच गया था. हम लोगों का रास्ता तो चौर से हो कर है और उसका पानी घटता ही नहीं था। आना-जाना मुहाल हो गया था। हम लोगों को घूम कर उत्तरवारी जितवरिया हो कर आना-जाना पड़ता है। उस साल जितवारिया में हमने कुछ फूस का छप्पर डाल कर झोपड़ियां बनवाई थीं ताकि महिलाओं को कुछ तो सुविधा हो सके। वहाँ बच्चे भी पैदा हुए। उसके बाद से हम वहीं रह गए और अभी भी वहीं रहते हैं, उस समय जो सड़क टूट गई थी वह अभी भी टूटी ही हुई है।
श्री साधु शरण सिंह